Wednesday, 18 July 2012

सीखना

सीखना और सीखाने की बात आती है तो शिक्षक और बच्चे सबसे पहले जहन में आते है , सीखना पूरी तरह से खुद का होता है हमें या बच्चो को सीखने वाला जो होता है वह केवल सहयोग का काम करता है, इसे एक उदा. से समझा जा सकता है। जब हम सायकल चलाना सीखते है तो सहयोग के लिए तो कोई भी आ जाता है मगर चला कर तो हमें ही देखना पड़ेगा की साय कल कैसे चलेगी। कैसे पैढल मरेगे कैसे सायकल पकड़ी जाये। तो मुद्दा यह है की सीखना क्या है और कैसे सीखते है। स्कूल में बैठे बच्चे की बात करे तो बच्चा सीखने की भूमिका में दिखाई  देता है और शिक्षक सीखाने की भूमिका में दिखता है। शिक्षक यह मान के चलता है की मेरे पास जो है वो सब में बच्चो को देना चाहता हु मसलन ghayaan . शिक्षक बच्चो को सीखते तो है पर बच्चे नही सीख पाते एसा शिक्षक का मानना  है शिक्षक का मानना भी सही है क्योकि शिक्षक अपनी कक्षा में बच्चो की कैसे पढ़ा रहा है बच्चो के बीच डर का माहोल पैदा करता है जो बच्चो के सीखने में बांधा उत्तपन कराती है। बच्चो के साथ कोई नया कम नही बस उसके पास को है वह बच्चो के अन्दर भरना चाहता है भले ही बच्चो को समझ आ रहा है या नही इस बात की उसे चिंता नही होता, हो भी क्यों उसे जो एक साल की जिम्मेदारी दी गई है वह पूरी करना है तो वह अपना काम कर के ही रहेगा.शिक्षक यह सब जनता है की कितने बच्चे सीखा रहे है और कितने नही मगर फिर भी वह आगे बढ़ जाता है और बाकि बच्चो को अपने हालात पर छोड़ देता है और वह बच्चे धीरे धीरे स्कूल से दूर हो जाते है।  

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